हिन्दू विवाह की शर्तें व उनके उलंघन के परिणाम --(धारा 5,धारा 7, धारा 8, धारा11व धारा 12 हिन्दू विवाह अधिनियम 1955)Conditions of Hindu Marriage and its consequences - (Section 5, Section 7, Section 8, Section 11 and Section 12 Hindu Marriage Act, 1955)
हिन्दू विधि में हिन्दू विवाह सम्पन्न किये जाने के लिए शर्तो का उपबन्ध किया गया है।और इन शर्तों के उल्लंघन में सम्पन्न विवाह विधि विपरीत है।निर्धारित आयु सीमा के कम उम्र में सम्पन्न विवाह को वैध माना गया हैलेकिन धारा 18 के अधीन दंडनीय अपराध है।ऐसा विवाह शुन्यकरणीय नहीं है।धारा 7 में वैध विवाह के लिए दिये गए प्रावधान के अनुसार सम्पन्न विवाह ही वैध होगा।हिन्दू विवाह अंतर्जातीय हो सकता है किसी जाति का हिन्दू किसी भी जाति के हिन्दू से विवाह कर सकते है।किंतु अन्य धर्मावलम्बी से हिन्दू का विवाह हिन्दू विवाह नहीं है।विवाह के लिए एक ही जाति का होना आवश्यक नहीं है लेकिन वर वधू दोनों का हिंदू होना आवश्यक हैं।वर वधु में एक सिख,जैन, बौद्ध, और दूसरा सनातनी ब्राह्मण हो सकता है या कोई एक क्षत्रिय दूसरा शुद्र या वैश्य हो सकता है।इस प्रकार जाति का कोई बंधन नहीं है।केवल हिंदू होना आवश्यक है और हिंदू में जैन, सिख और बौद्ध शामिल है।इस अधिनियम के प्रभावशील होने के पूर्व पुरुष अनेक विवाह करने के लिए स्वतंत्र था लेकिन धारा 5(1)के अनुसार अब पति या पत्नी पहले पति या पत्नी के विद्यमान रहते हुए दूसरा विवाह नहीं कर सकते।
इस प्रकार हिन्दुओ के विवाह बाबत उपबन्ध हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में किये गए हैं जो निम्न प्रकार है --
धारा 5--हिन्दू विवाह के लिए शर्तें -
दो हिन्दुओं के बीच विवाह उस सूरत में अनुष्ठित किया जा सकेगा जिसमें कि निम्न शर्ते पूरी की जाती हों, अर्थात् –
(i) दोनों पक्षकारों में से किसी का पति या पत्नी विवाह के समय जीवित नहीं है।
(ii) विवाह के समय दोनों पक्षकारों में से कोई पक्षकार -
(क) चित्त विकृति के परिणामस्वरूप विधिमान्य सम्मति देने में असमर्थ न हो; या
(ख) विधिमान्य सम्मति देने में समर्थ होने पर भी इस प्रकार के या इस हद तक मानसिक विकार से ग्रस्त न हो कि वह विवाह और सन्तानोत्पति के अयोग्य हो; या
(ग) उसे उन्मत्तता का दौरा बार-बार पड़ता हो।
(iii) वर ने 21 वर्ष की आयु और वधू ने 18 वर्ष की आयु विवाह के समय पूरी कर ली है;
(iv) जब कि उन दोनों में से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा से उन दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हो, तब पक्षकार प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियों के भीतर नहीं हैं;
(v) जब तक कि उनमें से प्रत्येक को शासित करने वाली रूढ़ि या प्रथा से उन दोनों के बीच विवाह अनुज्ञात न हो तब पक्षकार एक-दूसरे के सपिण्ड नहीं हैं।
(vi) [*****]
6. विवाहार्थ संरक्षकता - [* * *]
7. हिन्दू विवाह के लिए संस्कार-
(1) हिन्दू विवाह उसमें के पक्षकारों में से किसी के रूढ़िगत आचारों और संस्कारों के अनुरूप अनुठित किया जा सकेगा।
(2) जहाँ कि ऐसे आचार और संस्कारों के अन्तर्गत सप्तपदी है (अर्थात् अग्नि के समक्ष वर और वधू को संयुक्त सात पद लेना है) वह विवाह पूरा और बाध्यकर तब हो जाता है जबकि सातवाँ पद पूरा किया जाता है |
8. हिन्दू विवाहों का रजिस्ट्रीकरण -
(1) राज्य सरकार हिन्दू-विवाहों की सिद्धि को सुकर करने के प्रयोजन के लिए यह उपबन्धित करने वाले नियम बना सकेगी कि ऐसे किसी विवाह के पक्षकार अपने विवाह से सम्बद्ध विशिष्टयाँ इस प्रयोजन के लिए रखे जाने वाले हिन्दू-विवाह रजिस्टर में ऐसी रीति में और ऐसी शतों के अधीन रहकर जैसी कि विहित की जायें, प्रविष्ट कर सकेंगे।
(2) यदि राज्य सरकार की यह राय है कि ऐसा करना आवश्यक या इष्टकर है तो यह उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी यह उपबन्ध कर सकेगी कि उपधारा (1) में निर्दिष्ट विशिष्टयों को प्रविष्ट करना उस राज्य में या उसके किसी भाग में या तो सब अवस्थाओं में या ऐसी अवस्थाओं में जैसी कि उल्लिखित की जायें, अनिवार्य होगा और जहाँ कि ऐसा कोई निर्देश निकाला गया है, वहाँ इस निमित्त बनाये गये किसी नियम का उल्लंघन करने वाला कोई व्यक्ति जुर्माने से जो कि 25 रुपये तक का हो सकेगा, दण्डनीय होगा।
(3) इस धारा के अधीन बनाये गये सब नियम अपने बनाये जाने के यथाशक्य शीघ्र पश्चात् राज्य विधान मण्डल के समक्ष रखे जायेंगे।
(4) हिन्दू-विवाह रजिस्टर सब युक्तियुक्त समयों पर निरीक्षण के लिए खुला रहेगा और उसमें अन्तर्विष्ट कथन साक्ष्य के रूप में ग्राह्य होंगे और रजिस्ट्रार आवेदन किये जाने पर और अपने की विहित फीस की देनगियाँ किये जाने पर उसमें से प्रमाणित उद्धरण देगा।
(5) इस धारा में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी किसी हिन्दू-विवाह की मान्यता ऐसी प्रविष्टि करने में कार्यलोप के कारण किसी अनुरीति में प्रभावित न होगी।
11. शून्य विवाह -
इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् अनुष्ठित किया गया यदि कोई विवाह धारा 5 के खण्ड (1), (4) और (5) में उल्लिखित शतों में से किसी एक का उल्लंघन करता है, तो वह अकृत और शून्य होगा और उसमें के किसी भी पक्षकार के द्वारा दूसरे पक्षकार के विरुद्ध पेश की गई याचिका पर अकृतता की आज्ञप्ति द्वारा ऐसा घोषित किया जा सकेगा।
12. शून्यकरणीय विवाह –
(1) कोई विवाह भले ही वह इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् अनुष्ठित किया गया है; निम्न आधारों में से किसी पर अर्थात्:
(क) कि प्रत्यर्थी की नपुंसकता के कारण विवाहोत्तर संभोग नहीं हुआ है; या
(ख) इस आधार पर कि विवाह धारा 5 के खण्ड (2) में उल्लिखित शतों के उल्लंघन में है; या
(ग) इस आधार पर कि याचिकादाता की सम्मति या जहाँ कि याचिकादाता के विवाहार्थ संरक्षक की सम्मति, धारा 5 के अनुसार बाल विवाह निरोधक (संशोधन) अधिनियम, 1978 (1978 का 2) के लागू होने के पूर्व थी वहाँ ऐसे संरक्षक की सम्मति बल या कर्म-काण्ड की प्रकृति या प्रत्यर्थी से सम्बन्धित किसी तात्विक तथ्य या परिस्थिति के बारे में कपट द्वारा अभिप्राप्त की गई थी, या
(घ) इस आधार पर कि प्रत्युत्तरदात्री विवाह के समय याचिकादाता से भिन्न किसी व्यक्ति द्वारा गर्भवती थी; शून्यकरणीय होगा और अकृतता की आज्ञप्ति द्वारा अकृत किया जा सकेगा।
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी विवाह को अकृत करने के लिए कोई याचिका:
(क) उपधारा (1) के खण्ड (ग) में उल्लिखित आधार पर उस सूरत में ग्रहण न की जायेगी जिसमें कि -
(i) अर्जी, यथास्थिति, बल प्रयोग के प्रवर्तनहीन हो जाने या कपट का पता चल जाने के एकाधिक वर्ष पश्चात् दी जाए; या
(ii) अजींदार, यथास्थिति, बल प्रयोग के प्रवर्तन हो जाने के या कपट का पता चल जाने के पश्चात् विवाह के दूसरे पक्षकार के साथ अपनी पूर्ण सहमति से पति या पत्नी के रूप में रहा या रही है;
(ख) उपधारा (1) के खण्ड (घ) में उल्लिखित आधार पर तब तक ग्रहण न की जायेगी जब तक कि न्यायालय का समाधान नहीं हो जाता है -
(i) कि याचिकादाता अभिकथित तथ्यों से विवाह के समय अनभिज्ञ था;
(ii) कि इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठित विवाहों की अवस्था में कार्यवाहियाँ ऐसे प्रारम्भ के एक वर्ष के भीतर और ऐसे प्रारम्भ के पश्चात् अनुष्ठित विवाहों की अवस्था में विवाह की तारीख से एक वर्ष के भीतर संस्थित कर दी गई हैं; और
(iii) कि याचिकादाता की सम्मति से वैवाहिक सम्भोग उक्त आधार के अस्तित्व का पता याचिकादाता को चल जाने के दिन से नहीं हुआ है।
उपरोक्त सभी धाराओ के विवेचन से सपष्ट हैं कि हिंदू विवाह के लिए जो शर्तें उपबंधित की गई है उनके उलंघन पर क्या परिणाम होंगे उनका भी उपबंध किया गया है। इस सम्बन्ध में विविध न्यायनिर्णय सहित विवेचन दिया जा रहा हैं -
(1)द्वितीय विवाह - यदि पति ने द्वितीय विवाह किया है तो पत्नी के लिए धारा 11 या 17 के अंतर्गत कोई उपचार नहीं है।वह सामान्य विवाह विधि के अंतर्गत पति के द्वारा द्वितीय विवाह को अवैध व शून्य घोषित किए के लिए वाद प्रस्तुत कर सकती हैं।
AIR 1995 All.243
(2)रूढ़ि विघटन - पत्नी का कहना था कि उसका पूर्व विवाह रूढ़ि के अनुसार पंचायत के सामने विघटित हो चुका था तब फिर द्वितीय विवाह किया।साक्ष्य से रूढ़ि की विधिमान्यता और विवाह विच्छेद साबित नहीं हो पाया।द्वितीय विवाह को अकृत और शून्य घोषित किया गया।
AIR 1995 Punjab 287
(3)अवयस्क - यदि विवाह का एक पक्षकार अवयस्क हो तो विवाह को अकृत घोषित करने के लिए उस अवयस्क का संरक्षक दावा कर सकते है।
1967 MPLJ 56
(4)विवाह कर्म -विवाह की वैधता सिद्ध करने के लिए सप्तपदी और पवित्र अग्नि के समक्ष प्राथना सिद्ध किया गया किन्तु कूछ प्रथागत कर्म सिद्ध नहीं हो पाए तो भी विवाह सिद्ध माना जायेगा।
AIR 1989Ker.89
(5)धारा 12 (1)(क) - कुटम्ब न्यायलय ने पत्नी के नपुंसक होने के कारण विवाह विच्छेद की डिक्री पारित की और उसे निर्वाह भत्ता दिलाया इसको पति ने चुनोती दी --अभिनिर्धारित, धारा 25 शून्य अथवा शून्य होने योग्य विवाह में कोई विभेद नहीं करती हैं --जब एक बार पति और पत्नी के सम्बंध स्थापित होकर स्वीकार हो जाते हैं तो धारा 25 के अंतर्गत भरण पोषण का भत्ता प्रदान ही होगा।
1996 (1)DNJ (Raj.)58
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